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कबीर के दोहे pdf download | Kabir ke Dohe and Meaning

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Kabir ke Dohe and Meaning

 

परिचय: कबीर दास के प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित

15वीं सदी के रहस्यवादी कवि और संत कबीर अपने आध्यात्मिक ज्ञानवर्धक दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके छंद उस कालजयी ज्ञान का प्रमाण हैं जो पीढ़ियों से परे है। इस लेख में, हम कबीर के दोहों की दुनिया में गहराई से उतरेंगे, उनके महत्व, प्रासंगिकता और उनके द्वारा दी जाने वाली गहन सीख को उजागर करेंगे।

कबीर का जीवन

कबीर का जीवन रहस्य में डूबा हुआ है। भारत के वाराणसी में जन्मे, उनकी उत्पत्ति अनिश्चित है, कुछ लोगों का सुझाव है कि वह व्यापार से एक बुनकर थे। उनकी पृष्ठभूमि के बावजूद, कबीर की शिक्षाएँ लाखों लोगों के बीच गूंजती हैं, जिससे वे हिंदू धर्म और सूफीवाद दोनों में एक श्रद्धेय व्यक्ति बन गए हैं।

कबीर की साहित्यिक विरासत

कबीर ने अपनी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि को 'दोहा' या दोहे के माध्यम से व्यक्त किया, जो छोटी, गीतात्मक कविताएँ हैं। इन दोहों की विशेषता उनकी सरलता और गहरी गहराई है, जो उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों के लिए सुलभ बनाती है।

 

कबीर दोहे अर्थ सहित | Kabir ke Dohe and Meaning


दोहा:
"बुरा-जो-देखन-मैं-चला, बुरा-न-मिलिया-कोय।"
जो-मन-खोजा-आपना, तो-मुझे-बुरा-ना-कोय।”


अर्थ:
“मैं दुष्टों को ढूंढ़ने गया, परन्तु मुझे कोई न मिला।
जब मैंने अपने हृदय को टटोला तो पाया कि मैं स्वयं ही दुष्ट हूँ।"

स्पष्टीकरण:
इस दोहे में कबीर आत्मनिरीक्षण पर जोर देते हैं। उनका सुझाव है कि जब उन्होंने दूसरों में बुराई ढूंढी, तो उन्हें कोई बुराई नहीं मिली, लेकिन जब उन्होंने अपने दिल की जांच की, तो उन्हें अपने भीतर खामियां मिलीं। संदेश यह है कि दूसरों को आंकने से पहले आत्म-सुधार पर ध्यान केंद्रित करें।
 

दोहा:
"साईं-इतना-जरूर, जा-में-कुटुंब-समाय।"
मैं-भी-भूखा-न-रहूँ, साधु-न-भूखा-जाय।”


अर्थ:
"मुझे केवल उतना ही दो, हे प्रभु, जिससे मेरे परिवार का भरण-पोषण हो सके।
ताकि न मैं भूखा रहूँ, और न कोई पवित्र मनुष्य भूखा रहे।”

स्पष्टीकरण:
कबीर संयम और साझा करने के महत्व पर जोर देते हैं। वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसके परिवार का भरण-पोषण हो सके और यह सुनिश्चित हो सके कि उसकी प्रचुरता के कारण कोई भी, विशेष रूप से एक पवित्र व्यक्ति भूखा न रहे।
 

दोहा:
“मन-ना-रंगा-पाप करे, बिना-संशय-दुःख-होय।”
अपनी-आत्मा-का-ध्यान-रखो, बुराई-से-दूर-रहो।"


अर्थ:
"हमें अपने मन को न स्वभाविक रूप से दुष्कृत करने की दिशा में ले जाने की बजाय अपनी आत्मा के ध्यान में रहना चाहिए। जब हम बुराई की दिशा में मनन करते हैं, तो हमें दुःख ही होता है। इसके बजाय, हमें अपने आत्मा का ध्यान रखकर अपने मन को शुद्ध और सकारात्मक दिशा में ले जाना चाहिए, ताकि हम बुराई से दूर रह सकें।"

स्पष्टीकरण:
कबीर सलाह देते हैं कि व्यक्ति को केवल बाहरी दिखावे की पवित्रता पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि अपने भीतर के पापपूर्ण विचारों और कार्यों की रक्षा करनी चाहिए। सच्ची धार्मिकता भीतर से आती है।
 

दोहा:
"साईं-इतना-बाकी, जा-में-अरसी।"
मैं-भी-भूखा-न-रहूँ, साधु-भूखा-न-जाय।”


अर्थ:
"मुझे केवल उतना ही दो, हे भगवान, जितना मैं चौरासी वर्षों तक रह सकूं।
ताकि न मैं भूखा रहूँ, और न कोई पवित्र मनुष्य भूखा रहे।”

स्पष्टीकरण:
कबीर, एक बार फिर, दूसरों को साझा करने और उनकी देखभाल करने की अवधारणा पर जोर देते हैं। वह जीविका के लिए प्रार्थना करता है जो उसकी भलाई सुनिश्चित करती है और साथ ही यह भी सुनिश्चित करती है कि उसकी प्रचुरता के कारण कोई भी पवित्र व्यक्ति भूखा न रहे।

दोहा:
“पोथी-पढ़ि-पढ़ि-ज- मुआ, पंडित-भया-न-कोय।
ज़ोरदार-आखर-प्रेम-का, पढ़ो-सो-पंडित-होय।"


अर्थ:
“अनंत किताबें पढ़ने से, दुनिया को ज्ञान नहीं मिला।
जो प्रेम के मर्म को समझ लेता है, वही सच्चा विद्वान बन जाता है।”

स्पष्टीकरण:

कबीर केवल किताबी ज्ञान से अधिक अनुभवात्मक ज्ञान के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। सच्चा ज्ञान प्रेम और करुणा की भाषा को समझने से आता है।
 

दोहा:
"बिना-देखे-परदेस-का, बिना-देखे-हो-मास।
बिना-देखे-ब्याह-का, क्या-आवे-गो-घास।"


अर्थ:
"विदेशी भूमि देखे बिना, आपको ऋषि माना जाता है।
अपनी दुल्हन को देखे बिना विवाह भोज का क्या लाभ?”

स्पष्टीकरण:
कबीर रीति-रिवाजों और रीति-रिवाजों की सतहीपन पर जोर देते हैं। सच्चा ज्ञान बाहरी दिखावे के बारे में नहीं बल्कि चीजों के सार को समझने के बारे में है।
 

दोहा:
"गुरु-गोविंद-दोऊ, काको-लागूं-पाय।
बलिहारी-गुरु-आपने, जिन-गोबिन्द-दियो-मिलाय।"


अर्थ:
"कबीर यहां यह बता रहे हैं कि गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि वह ही व्यक्ति को भगवान की ओर दिलाता है और उसे उसके साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन करता है। इसलिए कबीर कहते हैं कि गुरु को ही बलिहारी मानना चाहिए, जिन्होंने उन्हें भगवान के साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन दिया।”

स्पष्टीकरण:
कबीर ईश्वर की ओर मार्गदर्शन करने में आध्यात्मिक शिक्षक की भूमिका को स्वीकार करते हैं। गुरु को आध्यात्मिक अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए सम्मानित किया जाता है।
 

दोहा:
"दुख-में-सुमिरन-सब-करें, सुख-में-करे-न-कोय।"
जो-सुख-में-सुमिरन-करे, दुःख-काहे-को-होय।”


अर्थ:
“इस कबीर के दोहे का सरल अर्थ है कि जब हम दुख के समय में भगवान का स्मरण करते हैं, तो वही हमें शांति और सांत्वना देता है। लेकिन जब हम सुख के समय में भगवान का स्मरण नहीं करते, तो दुख क्यों होवे? इसका मतलब है कि हमें सुख और दुख के समय दोनों में ही भगवान का स्मरण करना चाहिए, क्योंकि यह हमें चिन्ता और परेशानी से बचाता है और हमारी आध्यात्मिक ग्रोथ को बढ़ावा देता है।”

स्पष्टीकरण:
कबीर हमें न केवल दुख के समय में बल्कि खुशी के क्षणों में भी परमात्मा के साथ संबंध बनाए रखने का आग्रह करते हैं, क्योंकि निरंतर आध्यात्मिक अभ्यास से स्थायी खुशी मिलती है।

 

दोहा:
"माटी-कहे-कुम्हार-से, तू-क्यों-रोई है।"
वो कहे-हाँ-हाँ-मैं-रौन-जी-के-पास।"


अर्थ:
"इस दोहे का संदेश है कि हर व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार के दुख और संघर्षों का सामना करता है, और इसमें कोई अत्यंत विशेषता नहीं है। सभी किसी न किसी प्रकार के कठिनाइयों का सामना करते हैं, और उनका मूल उद्देश्य आत्मा के साथी परमात्मा की खोज है। इसलिए जब हम अपने जीवन में कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो हमें धैर्य और समर्पण की आवश्यकता है, क्योंकि यह हमारे आध्यात्मिक विकास के माध्यम से होता है और हमें आत्मा के साथ एकता में ले जाता है।"

स्पष्टीकरण:
मानवीय अनुभव को दर्शाने के लिए कबीर कुम्हार और मिट्टी के रूपक का उपयोग करते हैं। जिस प्रकार मिट्टी को कुम्हार द्वारा ढाला जाता है, उसी प्रकार हमारे जीवन को एक उच्च शक्ति द्वारा आकार दिया जाता है। कुम्हार के आँसू जीवन की नश्वरता को दर्शाते हैं।

दोहा :
"बड़ी-ज़मीन-न-होई, अपनी-अपनी बात।"
कहि-कबीर-हुँ-मन-में राखी, खोजी-हुँ-सब-जगह।''


अर्थ:
"इस कबीर के दोहे का सरल अर्थ है कि जब हम किसी समस्या का समाधान ढूंढ़ते हैं, तो हमें दुख की ज़मीन में नहीं बल्कि अपने मन में खोज करनी चाहिए। कबीर कहते हैं कि उन्होंने अपने मन में दिव्यता खोजी है, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि उन्होंने समस्या का समाधान पाया है।"

स्पष्टीकरण:
इस दोहे का संदेश है कि समस्याओं का समाधान अकेले बाहरी प्रकृति की तलाशने में नहीं है, बल्कि हमें अपने आप के अंदर जा कर अपने भीतर की ताकतों और संवेदनाओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए।

दोहा :
"जो-तो-कर्म करे, तो-धर्म-करे कोय।"
जो तो-कर्म करे, तो धर्म-करे-सब होय।”


अर्थ:
"इस कबीर के दोहे का सरल अर्थ है कि जब हम कर्म करते हैं, तो हमें उन कर्मों को धर्मिक भावना से करना चाहिए। जो व्यक्ति अपने कर्मों को धर्मिक और ईमानदारी से करता है, वह आध्यात्मिकता को प्राप्त करता है।

कबीर इस दोहे के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि हमें अपने कर्मों को निष्कल्प भावना से और निष्काम भाव से करना चाहिए। धर्मिकता और ईमानदारी के साथ कर्म करने से हमारा आध्यात्मिक और मानविक विकास होता है।"

स्पष्टीकरण:
कबीर धार्मिकता और निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करने के महत्व पर जोर देते हैं। उनके अनुसार, इससे आध्यात्मिक विकास होता है।

दोहा :
“साखी-री-साखी, करे-मनहि-आस।
बार-बार कहे-कबीर, छबीली-हुई बात।"


अर्थ:
“प्रिय मित्र अनुग्रहपूर्वक आमंत्रित करता है और आश्वासन देता है।
कबीर बार-बार कहते हैं, बातचीत आनंददायक हो गई है।”

स्पष्टीकरण:
कबीर ईश्वर के साथ एक रमणीय और आकर्षक संबंध की बात करते हैं, जहां भक्त को अनुग्रह और आश्वासन मिलता है।


दोहा :
"ज्यों-केवड़-का डोर मन, ज्यों-बदल-मन का फूल।"
ज्यों रंगीला तन-मन, ज्यों दीपक-मन-में फूल।”


अर्थ:
"जैसा कमल का धागा, वैसा ही मन।
जैसे फूल के रंग बदलते हैं, वैसे ही मन भी बदलता है।
जैसे चंचल शरीर और मन, वैसा ही मन भी है।
जैसे हृदय में दीपक होता है, वैसे ही मन भी होता है।”

स्पष्टीकरण:
मन की निरंतर बदलती और बेचैन प्रकृति को दर्शाने के लिए कबीर रूपकों का उपयोग करते हैं। वह शांति पाने के लिए आंतरिक शांति और ध्यान को प्रोत्साहित करते हैं।

 

 दोहा :

कागा-का-को धन हरे, कोयल का-को-देय।
मीठे-वचन-सुना के, जग-अपना-कर लेय।।

अर्थ : इस कबीर के दोहे का सरल अर्थ यह है कि जब कागा (कौआ) धन को हर ले जाता है, तो कोयल अपनी मिठी आवाज़ से सुनाकर जगह बना लेती है।

स्पष्टीकरण : जब हम अपने वचनों को मीठा और प्रेरणादायक बनाते हैं, तो हम अपने आसपास के लोगों का दिल जीत सकते हैं और उन्हें अपना बना सकते हैं। इस दोहे में संवाद का संदेश है कि मीठे और प्रेरणादायक वचनों का प्रयोग करके हम अपने समाज में सुखद और सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।

 

दोहा :

बन्दे-तू-कर-बन्दगी, तो-पावै-दीदार।
औसर-मानुष-जन्म का, बहुरि-न-बारम्बार।।


अर्थ: इस कबीर के दोहे का सरल अर्थ है कि अगर तुम अपनी जीवन में भगवान की पूजा और भक्ति करने का संकल्प बना लो, तो तुम्हें उसके दर्शन होंगे। इसमें यह भी कहा जा रहा है कि मानव जीवन का जन्म अत्यंत मूल्यवान है, इसलिए इसका उपयोग बार-बार नहीं करना चाहिए।

स्पष्टीकरण: इस दोहे का संदेश है कि हमें अपने जीवन को धार्मिक भावना से भरना चाहिए और मानव जीवन का मूल्य समझना चाहिए।


कबीर का प्रभाव आज

21वीं सदी में भी कबीर के दोहे प्रासंगिक बने हुए हैं. वे अनिश्चितता के समय में सांत्वना और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं और जीवन की जटिलताओं की गहरी समझ चाहने वालों के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में काम करते हैं।

निष्कर्ष: कबीरदास का दोहा अर्थ सहित

कबीर के दोहे ज्ञान का स्रोत बने हुए हैं, जो मानवीय अनुभव और आध्यात्मिकता में गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। एकता, आत्मनिरीक्षण और सादगी के उनके सार्वभौमिक विषय समय और संस्कृति से परे हैं, जो उन्हें मानवता के लिए अमूल्य बनाते हैं।

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